गुरुवार, 2 सितंबर 2010

निष्पक्षता के भ्रमात्मक आवरण के खिलाफ

जी हां!हम पूरे दावे के साथ स्वीकार करते हैं कि हम निष्पक्ष नही हैं | बल्कि यह कहें कि इस ब्लग की जरूरत भारतीय पत्रकारिता में अचानक घुस आये छद्म निष्पक्षता के नाम पर संवेदन शुन्यता के कारण ही पङा है | पत्रकार मूक-दर्शक बनकर अपने आस-पासघट रहे,समाज और देश को पीछे की ओर ले जाने वाली घटनाओं और शोषण चक्र को केवल परोसने के काम में लगे हुये हैं |

पत्रकारों के लिये किसी कन्या के साथ होने वाला बलात्कार, और किसी आदमी को जलते हुये देखना केवल समाचार बनकर रह गया है | यह पत्रकारिता की चारित्रिक विभीत्सता को प्रदर्शित नही करता तो और क्या है ? आप एक जलते हुये आदमी को केवल इसलिये बचाने की कोशिश नही करते कि उसकी मौत को आकर्षक खबर का सामान बनाकर क्रय-विक्रय के लिये सूचना बाजार में बेच सके !

बहुत दिन हुये छत्तीसगढ के कांकेर में एक अवैध व निर्मम प्रशासनिक कार्यवाही का बिरोध करते हुये मैने एक आई ए एस अफसर का गुस्सा झेला था,तब एक प्रतिष्ठित दैनिक के संपादक ने मुझे सलाह दी थी कि पत्रकार का काम केवल घटनाओं को प्रत्यक्षदर्शी रहकर देखना और पाठक के सामने परोसना है |

आज गंभीरता से विचार करें तो समझ आयेगा कि कई खुबियों के बावजूद पत्रकारिता अपने दायित्वबोध से भटक चुका है | लेकिन संवेदनहीनता का सारा दोष पत्रकारों के सर पर मढना ठीक नही होगा | सच तो यह है कि उपभोक्ता-वादी बाजार ब्यवस्था ने मानव गरिमा और संस्कृति के सारे मुल्य मिटा देने का अभियान चला रखा है , यह सब उसी की परिणति है | उत्तरदायित्य विहीन व इंसानियत बिरोधी पत्रकारिता ने पैर पसार लिया है,जंहा दिखावा ,सत्ता-पक्ष और माफिया की चाटुकारिता और चटकारा युक्त प्रस्तुति के अलावा और कुछ नही |जनता के हित में अपनी सामाजिक भूमिका का निर्वाह न कर पाने की अपनी मजबूरी और नपुंसकता को छिपाने के लिये ही निष्पक्षता के अपने भ्रमात्मक दायित्व का सृजन कर लिया गया है |

सच्चाई यह है कि भारतीय पत्रकारिता का इतिहास कभी भी निष्पक्ष नही रहा है |बल्कि पूर्ण संवेदनशीलता की प्रवित्ति के साथ एक हांथ में झंडा और दुसरे हांथ में कलम थामे भारतीय पत्रकारिता की शुरुवात हुई है |झंडे पर हांथ की पकङ कलम की अपेक्षा ज्यादा मजबूती से दिखाई देता है |साफ शब्दों में कहें कि पत्रकार अपने दायित्व का निर्वहन करने वाला नागरिक पहले होता है,पत्रकार बाद में